हर वो शख्स इस जिन्दगी से मुक्त हो जाता है जो इस जीवन की अर्थता और व्यर्थता को जान लेता है. जो होश में जीता है, जिसे ये भी ख्याल होता है की वो सांस ले रहा है. जो ये जानता है वो और उसका ये शरीर दोनों अलग-अलग बातें है, जैसे एक मंदिर में भगवान की मूर्ति उस मंदिर की आत्मा होती है. जब तक उस मंदिर में मूर्ति है तब तक उस मंदिर अर्थ है जैसे ही उस मंदिर से मूर्ति को हटा दे तो मंदिर व्यर्थ हो जाता है. जिसे ये अच्छी तरह ख्याल में है कि वो कुछ दिन के लिए इस शरीर में है, एक दिन इसे खो जाना है.
जिसे न तो पाने कि ख़ुशी होती है न खोने का गम होता है उसे मुक्ति मिल चुकी है.
कुछ धर्मो का मानना है कि मृत्यु मुक्ति का द्वार है. लेकिन मेरा मानना है कि जिन्दगी को जान लेना ही मुक्ति है. और मृत्यु जीवन का द्वार है.
मृत्यु पा लेने के बाद भी हम वही होते है जो मृत्यु से पहले होते है. अंतर सिर्फ इतना होता है कि मृत्यु के बाद हमारे पास शरीर नहीं होता, मृत्यु के बाद भी हम और हमारी इच्छाए बरकरार रहती है. इच्छाएं पूरी करने के लिए भटकती रहती है. यही इच्छा उसे अगले जन्म लेने के लिए मजबूर करती है. शरीर छोड़ने के बाद ये आत्मा कभी-कभी इतनी ज्यादा आतुर होती है अपनी इच्छाओ को पूरी करने के लिए कि उसे जैसा भी गर्भ मिले उसमे समा जाती है. जिन्हें अपनी इच्छाओ पर काबू है वो अपने अनुसार गर्भ कि तलाश करते है. जिसमे कुछ वक़्त लग जाता है. जो उत्तम आत्माएं होती उन्हें अपने अनुसार गर्भ ढूंढने में सैकड़ो साल या युग भी लग जाते है. तभी तो आपने देखा होगा कि महापुरुष, लगभग सौ सालो में एक दिखाई पड़ते है.
अब बात करते है कि मृत्यु के बाद जो क्रिया कर्म होते है वो कहाँ तक उचित या जरुरी है.
एक आम इंसान पूरे जीवन में जो अपने आस-पास होते हुए देखता है, वही वो अपनी मृत्यु के बाद भी चाहता है. क्योंकि उसकी आत्मा शरीर छोड़ने के बाद भी शरीर के आस-पास ही रहती है तब तक, जबतक कि उसके शरीर को उसके अपने धर्मो के अनुसार नष्ट करके सभी क्रिया-कर्म न कर लिया जाए. क्योंकि उसे तब तक यकीन ही नहीं हो पाता है कि वो मर चूका है. उस आत्मा को यकीन दिलाने के लिए ये सभी कर्म कांड कराये जाते है. बाकि इन कर्म-कांडो का कोई अर्थ नहीं है. इसी यकीन दिलाने को लोग मुक्ति कहते है जबकि वो अब भी मुक्त नहीं हुआ है. क्योंकि उसकी इच्छाएं अब भी उतनी ही है. और वो अपनी इच्छा को पूरी करने के लिए कुत्ते के गर्भ में भी जा सकता है. उसे किस गर्भ में जाना है ये निर्भर करता है कि उसका भाव कैसा रहा है अपने जीवनकाल में ..
जो ध्यान करते है उन्हें ये समझने में जरा भी मुश्किल नहीं होती कि मृत्यु क्या है, और कोई भी आत्मा शरीर से कैसे अलग हो जाता है. क्योंकि वो ध्यान में खुद को अलग होते हुए देखते है. मृत्यु का पूर्वाभ्यास कर लेते है. इसलिए मृत्यु उनके लिए जिन्दगी में कोई अहम् घटना नहीं होती. और वो आसानी से मृत्यु को स्वीकार कर लेते है, कुछ लोग जो कुछ ज्यादा ही ध्यान को उपलब्ध होते है वो तो अपनी मृत्यु खुद बुला लेते है जिन्हें आप समाधि भी कह सकते है . ऐसे लोगो को मृत्यु के बाद उनके शरीर को कुछ भी कर दे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वो जान लेते है कि मैं मृत्यु को उपलब्ध हो चूका हूँ. और उन्हें अपने शरीर से कोई मोह नहीं होता.
आम इंसान मृत्यु के बाद अवाक हो जाता है, चौंक जाता है, कि ये क्या हुआ? मेरा शरीर क्यों बेजान पड़ा हुआ है? इन्ही सब सवालो के जवाब में मृत्यु के क्रिया कर्मो को करके उसे समझाया जाता है कि वो मर चूका है.
उत्तम आत्माएं आपके आस-पास घुमती रहती है. अच्छे कामो को करने में मदद करती है. यही आत्माएं परमात्मा कहलाती है.
जो कुछ ज्यादा ही बुरे लोग होते है, उनकी आत्माओं को भी अपना दूसरा गर्भ ढूंढने में वक़्त लग जाता है. और वो दुरात्मा कहलाती है. ये भी आपके आस-पास घुमती रहती है. और ये आपके बारे में बुरा सोचती और आपसे बुरा कराती है.
इसलिए अच्छा सोचे, अच्छा भाव रखे , मुक्त आज ही हो जाए, मृत्यु का इंतज़ार न करें. हो सके तो ध्यान जरुर करें.
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments