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शिक्षक और शिक्षा

BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
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शिक्षा और समाज के सम्बंध में कुछ थोडी सी बातें जो मुझे दिखाई पड्ती है, वो मैं आपसे कहूं शायद जिस भाँति आप सोच रहे होंगे उससे मेरी बात का मेल न हो, यह भी हो सकता है कि शिक्षाशास्त्र जिस तरह की बातें करता है उस तरह की बातों से मेरा विरोध भी हो। न तो मै कोई शिक्षाशास्त्री हूँ और न ही समाजशास्त्री, इसलिये सौभाग्य है थोडा कि मैं शिक्षा और समाज के संबंध में कुछ बुनियादी बातें कह सकता हूँ। क्योंकि जो शास्त्र से बंध जाते है उनका चिंतन समाप्त हो जाता है। जो शिक्षाशास्त्री है उनसे शिक्षा के संबंध में कुछ सत्य प्रकट होगा इसकी सम्भावना अब करीब-करीब समाप्त मान लेनी चाहिये । क्योंकि 5 हजार वर्ष से वो चिंतन करते है लेकिन जो शिक्षा कि स्थिति है शिक्षा का जो ढाँचा है  वो शिक्षा से पैदा होने वाले मनुष्यों की जो रुपरेखा है वो इतनी गलत, इतनी अस्वस्थ्य और भ्रांत है कि ये स्वाभाविक है कि शिक्षाशास्त्रियों से निराशा पैदा हो जाये। समाजशास्त्र भी जो समाज के संबंध मे चिंतन करते है वो भी अत्यंत रुग्ण और  अस्वस्थ्य है। अन्यथा मनुष्य जाति, उसका जीवन, उसका विचार बहुत अलग और अन्यथा हो सकते थे। मै दोनो मे से कोइ भी नही हूँ इसलिये  कुछ ऐसी बातें संभव है आपसे कह सकूँ जो सीधी समस्याओ को देखने से पैदा होती है। जिन लोगो के लिये भी शास्त्र महत्वपूर्ण हो जाते है, उनके लिये समाधान महत्वपूर्ण हो जाते है और समस्याये कम महत्व की हो जाती है। मुझे जोकि कोई पता नही शिक्षाशास्त्र का, इसलिये मै सीधी आपसे समस्याओ पर बात करना चाहूँगा।

सबसे पहली बात और जिस आधार पर आगे मै कुछ कहूँ वो ये है कि शिक्षक और समाज का संबंध अब तक अत्यंत खतरनाक सिद्ध हुआ है । संबंध क्या है शिक्षक और समाज के बीच आज तक, संबंध ये है कि शिक्षक गुलाम है और समाज मालिक ।…….. और शिक्षक से समाज कौन सा काम लेता है ।  शिक्षक से समाज काम ये लेता है – कि उसकी पुरानी ईष्याऎ, उसके पुराने द्वेष, उसके पुराने विचार, वो सब जो हजारो वर्षो की लाशें है मनुष्य के मन पर, शिक्षक उन नये बच्चों के मन मे प्रविष्ट करा दे। मरे हुये लोग, मरते जाने वाले लोग, जो वसीयत छोड गये है, चाहे वो ठीक हो या गलत उसे वो नये बच्चों के मन मे प्रविष्ट करा दे। समाज ये शिक्षक से काम लेता रहा है । और शिक्षक इस काम को करता रहा है ये आश्चर्य की बात है । इसका अर्थ ये हुआ की शिक्षक के उपर बहुत बडी लांछ्ना है बहुत बडी लांछ्ना ये है कि हर सदी जिन बीमारियों से पीडित होती है, उन बीमारियों को शिक्षक आगे आने वाली सदी मे संक्रमित कर देता है। समाज चाहता है ये इसलिये चाह्ता है कि समाज का ढांचा, समाज के ढाचे से जुड गये स्वार्थ, समाज के ढाचे के साथ जुड गये अन्धविश्वास, कोई भी मरना नही चाहते, कोई भी समाप्त् नही चाहते।  इस कारण समाज शिक्षक का आदर ही करता है, आदर करने की प्रवृति दिखलाता है। क्योकि बिना शिक्षक के खुशामद किये, बिना शिक्षक को आदर दिये, शिक्षक से काम लेना असंभव है। इसलिये कहा जाथा है कि जो शिक्षक है वो गुरु है, आदरणीय है, उसकी बात मानने योग्य है, उसका सम्मान किया जाने योग्य है, क्यों? क्योंकि जो समाज अपने बच्चो मे अपने मन की सारी धारणाओ को छोड जाना चाहता है, इसके सिवाय और कोई मार्ग नही है जैसे- हिन्दू बाप अपने बेटे को भी हिन्दू बना के ही मरना चाहता है, मुसलमान बाप अपने बेटे को मुसलमान बना के ही मरना चाहता है, हिन्दू बाप का जो मुसलमान बाप से जो झगडा था, वो भी अपने बच्चो को दे जाना चाहता है, ये कौन देगा? ये कौन संक्रमित करेगा? ये शिक्षक करेगा। पुरानी पीढी की जो-जो अन्धश्रद्धाये है वो सारी अन्धश्रद्धाये पुरानी पीढी नये पीढी पर थोप जाना चाहती है। अपने शास्त्र, अपने गुरु, सब थोप जाना चाह्ती है, ये कौन करेगा? ये शिक्षक से लेगी। और इसका परिणाम क्या होगा? इसका परिणाम ये होता है कि दुनिया मे भौतिक समृद्धि तो विकसित होती जाती है, लेकिन मानसिक शक्ति विकसित नही हो रही है । मानसिक शक्ति विकसित हो ही नही सकती जब तक की हम अतीत के भार और विचार से बच्चो को मुक्त न कर दे। एक छोटे से बच्चे के मस्तिष्क पर 5-10 हजार साल के संस्कारो का भार, उस भार के नीचे उसके प्राण दबे जाते है। उस भार मे उसके चेतना की ज्योति, उसके खुद का व्यक्तित्व, नीजिगत्व का उठना असंभव है ।  इस बात की चेष्टा चलती है कि कोई भी बेटा अपने बाप से भौतिक तल पर जरुर उंचा उठ जाये पर मन के तल पर नही. जैसे बाप के 1 मंजिले को चाहे बेटा कितना भी मंजिल उपर उठा दे, परंतु गीता, कुरान, बाईबिल, के बातों से कोई उपर न उठ जाये। इसलिये दुनिया मे भौतिक समृद्धि तो बढ्ती है लेकिन मानसिक दीनता भी बढ्ती चली जाती है।

सच्चा बाप वो है जो अपने बेटे को खुद से आगे हर क्षेत्र में जाने पर सम्मानित होता है, लेकिन हम अपमान समझते है अगर कोई कृष्ण से आगे की विचार करता है, जीसस से आगे कि सोचता है, इसमे हम कृष्ण का अपमान समझते है, जीसस का अपमान समझते है कैसी पागलपन की बात है। और इस कारण सारी शिक्षा अतीत की ओर उन्मुख है जबकि शिक्षा भविष्य की ओर उन्मुख होनी चाहिये । कोई भी विकासशील प्रक्रिया भविष्य की ओर उन्मुख होती है अतीत की ओर नही। हमारी सारी शिक्षा अतीत की ओर उत्सुक है। हमारी शिक्षाये, भावनाये, आदर्श अतीत से लिये जाते है । और ये सब कौन करता है ये सब शिक्षक उन बच्चो पर थोपते रहे है और समाज के ठेकेदारो द्वारा कराये जाते रहे है।

एक शिक्षक को विद्रोही होना चाहिए। जब तक एक शिक्षक विद्रोही न हो तब तक ज्ञान के क्षेत्र मे विकास नही हो सकता, जब तक विद्रोही न होगा तब तक ज्ञान के क्षेत्र मे चिंतन होना असंभव है।

बच्चो को सिखाया जाता है कि प्रेम करो, जबकि कभी आपने गौर किया कि आपकी शिक्षा, आपकी व्यवस्था प्रेम पर नही प्रतियोगिता पर आधारित है। और प्रतियोगिता प्रेम नही प्रतिस्पर्धा पैदा करती है, ईर्ष्या पैदा करती है। इस प्रतिस्पर्धा मे जो बच्चा आगे निकल जाता है उसे आप कहते है देखो वो आगे निकल गया और तुम पीछे रह गये। तो आपकी पूरी व्यवस्था बच्चो को द्वेष / अह्ंकार सिखाती है ।  लेकिन किताबों में आप कह रहे है विनीत बनो, प्रेम करो । और आपकी पूरी व्यवस्था समझा रही है घृणा करो, सबको पीछे करके आगे निकलो और आगे आने वाले को पुरस्कृत कर रही है। और पीछे रह गये उनको अपमानित कर रही है । तो आपकी व्यवस्था पीछे रहने वालो के अहंकार को चोट पहुंचाती है और आगे निकल जाने वालो के अहंकार को प्रबल करती है। ऐसे बच्चे क्या फिर आपसे प्रेम कर सकेंगे?

आज दुनिया मे रोज हिंसा, अत्याचार, लडाई-झगडे हो रहे है, हर झोपडी के आगे महल बन रहे है । और उस महल मे रहने वाले, उस झोपडी मे रहने वाले दुखी लोगो को देखकर भी खुश होते है तो हमें आश्चर्य नही होना चाहिये । क्योंकि हमने उसे यही सिखाया था । यहाँ दुनिया में किसी के पास खाने को नही है और किसी के पास इतना है कि वो समझ नही पा रहा है कि वो क्या करे? ये सब इसी शिक्षा का परिणाम है । और शिक्षक इसके लिये जिम्मेवार है। शिक्षक का शोषण किया जा रहा है।   और अगर ऐसी ही शिक्षा है तो भगवान करे सारी शिक्षा बन्द हो जाये, तो आदमी इससे बेह्तर हो सकता है। …………………………….
(ओशो द्वारा “शिक्षा में क्रांति” के प्रवचनांश )

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