ज़ख़्म
दिल की दीवारों पे किसी को ज़ख़्म न दो
एक ज़ख्म जिन्दगी का रुख़ बदल देती है ।
वक़्त भर देता है नासूर भी जिस्म के मगर
एक झोंका ही दिल-ए-ज़ख़्म को सबल देती है ।
हर डाल पर सैयाद है दिल के तीर लेकर
क़ैद पंछी पिंजड़े में लोगो को हज़ल देती है ।
जलाने बैठे है दीवाने दिल में आग लेकर
धुआँ दिल के जलने का हद-ए-नज़र देती है ।
जो अपने रक़्श से रौशन करती है महफिलें
मिटाकर खुद को वो सबके रात संवर देती है ।
पूछिये उन्हीं से हाल-ए-दिल क़फ़स-ए-उलफत का
औरों के लिए तो ये लफ़्ज़ बस ग़ज़ल देती है ।
हज़ल – तमाशा, मनोरंजन , रक़्श – नाच , क़फ़स – पिंजड़ा , उलफत – प्यार
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