- 111 Posts
- 2120 Comments
कहते है कि जहाँ जो चीज ज्यादा मात्रा में उपलब्ध होने लगती है वो वहाँ पर सस्ती हो जाती है उसका महत्व कम हो जाता है लेकिन हमारे भारत में एक ऐसी चीज है जो अधिक मात्रा मे उपलब्ध होने के बावजूद भी उसका महत्व कम नही होता अपितु उसे पाने के लिए कीमत भी बहुत चुकानी पड़ती है । जी हाँ वह चीज है “अपने धर्म और ईश्वर के प्रति आस्था”। आप कहीं भी चले जाये भारत के हर गली-मुहल्ले में कोई न कोई मन्दिर या देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ और धूप-दीप से सुगन्धित माहौल मिल ही जाता है और इसके बाद भी आये दिन कहीं-न-कहीं नए-पुराने देवी-देवता धरती से, पानी से निकलते रहते है। और इसे साबित करने के लिए हर जगह इसके उदाहरण, इसकी कहानियाँ, इसका इतिहास भी मिल जाता है। मतलब ये है कि भारत में आस्था कूट-कूट कर भरी हुई है। लेकिन इस आस्था के लिए हमें भारी कीमत भी चुकानी पड़ती है। हर साल हजारों भक्तों को अपनी कुर्बानी देनी पड़ती है इस आस्था को जगाये रखने के लिए.. कभी वैष्णों देवी जाने के रास्ते में, कभी अमरनाथ के रास्ते मे, कभी कुंभ में, कभी हरिद्वार में, कभी किसी संत के प्रवचन की भीड़ में और आज केदारनाथ की यात्रा में हजारों श्रद्धालुओं को आस्था की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ रही है।
और इन आस्थाओं की इतनी ज्यादा माँग है कि इतनी जानें जाने के बाद भी यहाँ लोगों का आना-जाना कम नही होता और शायद होगा भी नहीं। और मुझे नही लगता कि इन आस्थाओं से किसी को कोई लाभ हुआ हो … क्योंकि आस्था तो वो है कि “आस जो कभी था” अब है नहीं, बस यूँ ही आस किये जा रहे है कि “क्या जाने कहीं कुछ कभी हो ही जाए। कुछ मिल ही जाए” फिर लोग वो दोहे कहना नही भूलते कि “ना जाने किस भेष में मिल जाये भगवान” जबकि सभी शास्त्र, वेद-पुराण, गीता आदि धर्म-ग्रंथ यही कहते है कि ईश्वर हर जगह है, प्रकृति की हर एक शय में ईश्वर मौजूद है, तुम्हारे अन्दर भी है.. फिर लोग नही मानते .. फिर भी वहीं भागेंगे जहाँ मूर्तियों के दर्शन के लिए लाईन में खड़ा होना पड़ेगा, धक्के और लाठी तक खानी पड़ती है, टैक्स भी देना पड़्ता है मूर्तियों के दर्शन के लिए । इतना सब करने के बाद जब एक सेकेंड के लिए दर्शन होता है उन मूर्तियों का, तब कही जाकर लोग खुद को स्वर्ग में पहुँचता हुआ देखते है। क्या बात है .. कितनी बड़ी आस्था है लोगो के अन्दर… । सरकार और मन्दिर के पुजारी इन मूर्तियों को देखने पर टैक्स बढ़ाते चले जा रहे है और लोगो की आस्थाएँ भी उसी मात्रा में बढ़ती चली जा रही है। सरकार और पुजारी इन भगवानों पर व्यापार के जाल फैलाए जा रहे है और भक्त इनमें फँसते जा रहे है । जहाँ जितना ज्यादा टैक्स वहाँ उतनी ज्यादा आस्थाएँ। हिरन की तरह अपनी ही सुंगध को पाने के लिए पूरे संसार का चक्कर लगा रहे है, मन्दिर-मन्दिर, द्वारे-द्वारे घूम रहे है, धामों की यात्राएँ कर रहे है, क्या कमाल की आस्था है..
घर में एक-दूसरे के प्रति प्रेम नही है और एक धातु की मूर्तियों से प्रेम किए जा रहे है। घर में अपने बड़ो के प्रति इज्जत नही है और मन्दिर के पाखंडी पुजारियों को दंडवत प्रणाम करते है। अपने रोजगारों के लिए लोगो के पास पैसे नही होते और मन्दिरों मे दान देने के लिए या सोने का छत्र चढ़ाने के लिए धन न जाने कहाँ से आ जाते है । इस पर भी लोग आस्थाओ का नाम देकर उनसे बरसने वाले महिमा का व्याख्यान करते नही थकते। घर में छोटे-मोटे काम करने के लिए लोग एक-दूसरे का मुँह देखते रहते है या कुछ घंटे मे थककर बैठ जाते है, और मन्दिर या तीर्थ-यात्रा करने मे देखिये लोग घंटो खाली पैर पहाड़ो पर चढ़ने मे नही थकते, इसमें भी लोग खुद को अमुक देवी-देवताओं का कृपा-पात्र मानकर कृतार्थ महसूस करते है। लोग ये समझते नही कि जिस जोश, लगन और आस्था से उस पहाड़ों पर चढ़ने मे नही थकते, अगर उसी जोश, लगन और आस्था से अपने कर्म को करे तो यहाँ भी थकान बिल्कुल महसूस नहीं होगी।
प्रकृति की कुछ अपनी संरचनाएँ है कुछ नियम है जिनसे इस प्रकृति में उपस्थित सभी घटनाएँ नियंत्रित होती है। इन संरचनाओं और नियमों मे इंसानो ने दखल डालना शुरू कर दिया है जिसकी वजह से भारी क्षति वाली आपदाएँ होने लगी है और ऐसी ही होती रहेंगी इसमे कुछ नया नही है। इसमे आप पूजा-पाठ और मन्दिर पर न तो दोष लगा सकते है और न ही इसे बना कर आप इन आपदाओं को रोकने का दावा कर सकते है। आप अपने ही विज्ञान के किसी मशीन को ले ले .. उसे चलाने के भी अपने नियम होते है, अगर आप उन नियमों से कुछ भी छेड़-छाड़ करेंगे तो मशीन कुछ गलत भी कर सकता है और करेगा भी.. तो प्रकृति का भी अपना विज्ञान है जिसे हमें समझने की जरूरत है न कि उससे छेड़-छाड़ करने की या पाखंड की। आस्था तो हमें उस विज्ञान से करनी चाहिए जो इन आपदाओं मे फँसे लोगों को बचाने का कार्य कर रही है।
और यहाँ पर लोग अपने ईश्वर से प्रेम करते हुए दिखाई नहीं पड़ते अपितु भयभीत दिखाई पड़्ते है । इनकी आस्थाएँ भय की बुनियाद पर टिकी हुयी है जबकि इन आस्थाओं की बुनियाद मे प्रेम होना चाहिए था। अड़चन ये है कि जहाँ प्रेम है वहाँ ईश्वर को पाने के लिए कोई पाखंड नही करना पड़ता और बिना पाखंड किए लोगो को भरोसा नही होता। क्योंकि प्रेम होने के बाद सब कुछ प्रेममय, ईश्वरमय हो जाता है, एक-दूसरे में इतना घुल-मिल जाता है कि यह तय करना मुश्किल होता है कि कहाँ ईश्वर है और कहाँ नहीं।
लेकिन भयभीत है सब यहाँ, प्रेम मूर्तियों से कर लिया है, ईश्वर कहीं खो गया है, और इन मूर्तियों से मिलन में जो कठिनाईयाँ झेलनी पड़ती है लोगो ने उन कठिनाईयों से अपनी आस्थाओं को जोड़ लिया है। और इन मूर्तियों से मिलने में भी जो पूजा-पाठ, तंत्र-मंत्र, या त्राटक करते है वो भी डरते-डरते करते है फिर भी भय लगा रहता है कि कही कुछ गलती न हो जाए, नारियल के बदले कहीं फूल न पहले चढ़ जाये, कही क्रोध मे आकर ईश्वर हमें सजा न दे दे। भयभीत हैं सब ईश्वर से। भय की इन चारदीवारियों में ईश्वर कहाँ मिलेगा। हाँ शैतान जरूर मिल सकता है जो अपने अधीन आने वाले को भय की बुनियाद पर आस्था बनाये रखना चाहता है। ईश्वर तो सिर्फ प्रेम में ही मिल सकता है और कही नही..
लोगो की आस्थाएँ सच्ची नही है, नहीं तो इन पचासों हजार लोगो की आस्थाएँ एकजुट होकर भी केदारनाथ की एक प्राकृतिक घटनाओं को तिल भर भी रोक न सकी, यहाँ तक की मन्दिर भी क्षत-विक्षत होने लगी। और ईश्वर कभी इस तरह से क्षत-विक्षत नहीं हो सकता। फिर भी….. आस्था की होड़ में सब एक-दूसरे के पीछे भागे जा रहे है.. अभी एक मन्दिर पर विपदा आयी है… लेकिन कही और दूसरे मन्दिर पे जा कर देखिये अथाह भीड़ है, और कुछ दिन बाद यहाँ भी भीड़ लगेगी… ये भी एक विचित्र आस्था है, बिल्कुल समझ से परे।
जरूरत तथ्य को समझने की है, सत्य तक पहुँचने की है, आस्था के होड़ की भीड़ में फँसने की नही है। लेकिन लोग भी वही हैं कबूतर वाली बात कि “जाल में फँसे हुए है और गीत गा रहे है कि बहेलिया आएगा जाल बिछाएगा दाना डालेगा पर लोभ मे उसमें फँसना नहीं” आज भी सब कबूतर है इन्सान नही। हमें इंसान होने की जरूरत है तभी प्रकृति की बातें समझ में आयेंगी। हमें प्रेम में होने की जरूरत है तभी ईश्वर के दर्शन सम्भव है। किसी मन्दिर या मस्जिद मे जाकर भीड़ लगाकर आपदायेँ बुलाने की जरूरत नही है। देश में वैसे ही राजनीतिक विपदा आई हुई है जिससे जनता त्रस्त है, जिसे सुधारने की जरूरत है। इसके लिए सभी को मिल कर इन विपदाओ से निजात पाना होगा। इन झूठी आस्थाओं के चंगुल से निकलना होगा। तभी इस देश का कल्याण सम्भव है।
Read Comments