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ये क्रूर खेल है किसने खेला
जो मानवता से नाता तोड़ा
.
देख नही सकता यहाँ कोई
अपने स्वार्थ के आगे जब
मूल्य नहीं समझता कोई
प्रकृति के वैभव को जब
खुद ही माना है फिर ईश्वर
और सृष्टि रचने की ठानी है
पता नही है उसको ये
झूठी तारीफ बेमानी है
.
नदी-पहाड़ को विनाश कर
इंसा मन जब इतराया
तब प्रकृति ने अपना फिर
रौद्र-रूप है दिखलाया
क्रोध प्रकृति से यहाँ फिर
इंसानों पर विपदा आई
लाखो लोग पड़े संकट में
सृष्टि-विनाशक बरखा आई
.
चारो तरफ हुआ फिर पानी
बच न सका कोई काया
बनते फिरते थे जो ईश्वर
नही चली उनकी माया
बहने लगे धरा पर यूँ ही
जान-माल घर-धाम सहित
महलों मे शेखी थी जिनकी
आज हुए दो भूमि रहित
.
चारो ओर हुआ चीत्कार
रुदन-क्रन्दन का ऐसा मंजर
जिधर देखिये लहू-लूहान
जैसे घोंप गया कोई खंजर
चील-कौओ का घर उजाड़ा
नोंच-नोंच अब ले रहा बदला
भूल गये ये नदी बाँधकर
क्या हो जब ये लेगा बदला
.
अब मौत खुशी से नाच रही है
हाथो-हाथ वो बाँट रही है
सूखने लगे आँसू माओ के
लहू सूख गये घावों के
मानव होने लगा अवाक
माँगने लगा रहम बेवाक
देखा नही था किसी ने ऐसा
रूप प्रकृति ने दिखलाया जैसा
.
अपनी गलती अब सूझ रही है
रूह भी प्रश्न अब बूझ रही है
तूने क्या सोचा था ऐसा
होगा वही जो चाहेगा जैसा
देख ले करनी का अंजाम
लगा सकेगा मौतों का दाम
नियम समझ ले तू सृष्टि का
वर्ना आपदा आयेगा वृष्टि का
.
अभी है वक़्त सम्भलने का
समझ-बूझ कर चलने का
हुआ नही अभी कुछ ज्यादा
प्रकृति सुरक्षा का लो वादा
हर जीव को जीने देंगे हम
नदी पेड़ पहाड़ न तोड़ेंगे हम
देंगे जब हम ऐसा नारा
छिनेगा नही किसी का चारा
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