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हरी सिंह का परिवार बिहार के एक छोटे से गाँव में रहता है। उच्च जाति से है, पूर्वज कोई खैरात नहीं छोड़ गये न ही हरी सिंह को ज्यादा पढ़ाया-लिखाया ही, इसलिये हरी कहीं कोई नौकरी भी नहीं कर पाता। जाति की लाज-शर्म थी, नहीं तो किसी के घर भी नौकर ही बन जाता। लेकिन अब परिवार तो चलाना ही है चाहे कैसे भी हो, घर में एक बूढ़ी माँ, पत्नी, दो बेटे और एक बेटी भी है। एक दिन अचानक हरी सोचने लगा कि ये दो बीघे से घटकर जिस तरह चार कट्ठे जमीन बचे है, ऐसे ही चलता रहा तो ये भी बिक जाएगा, उसके बाद घर कैसे चलेगा? सवाल ये था कि काम करे भी तो क्या..? अमित छठी कक्षा में, दीपक पाँचवी में व सुलेखा तीसरी कक्षा में पढ़ती है, सरकारी स्कूल में।
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कोई व्यापार करता लेकिन हरी के पास धन नहीं है। कर्ज-उधार भी उन्हें ही मिलता है जिसके पास इतने जमीन-जायदाद हो कि व्यापार में घाटा होने पर उसे बेचकर भी उधार चुकता हो सके। बहुत सोचने समझने के बाद हरी खेती करने के नतीजे पर पहुँचा। गाँव के 3-4 जमींदारों से कुछ-कुछ जमीन लेकर बटाई (साझे) पर खेती करने का निर्णय लिया। जमींदारो ने परिवार की स्थिति देखकर उनकी मदद इस शर्त पर की, कि खेत से उपजे अन्न की हिस्सेदारी से मदद की रकम काट ली जाएगी।
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इंसान का काम उसके नाम को भी बदल देता है। गाँव में हरी अब हरिया हो गया। अपनी क्षमतानुसार बूढ़ी माँ व कभी-कभी पत्नी भी लोक-लाज से बचते हुए काम में हाथ बँटाती। अमित का मन पढ़ाई में कम, काम में ज्यादा लगता। हरिया भी अपनी बेबसी देखकर कुछ कह नही पाता। कभी-कभी अपनी स्थिति को देखकर रूआँसे भरे शब्दों मे अमित को कह देता कि – “बेटा नही पढ़ोगे तो एक दिन तुम्हे भी दूसरों के खेतों मे जाकर मजदूरी करनी पड़ेगी”। इस पर अमित हँसकर कहता- “पापा काम नहीं करेंगे तो घर कैसे चलेगा? और आप अकेले कब तक काम करोगे? और वैसे भी पढ़ने में मेरा मन नही लगता। दीपक को पढ़ाते है न हम दोनों मिलकर, उसे पढ़ने का शौक़ भी है”। हरिया आँसू के घूँट पीकर चुप हो जाता।
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हरिया के दिन, हफ्ते, महीने और साल कटने लगे। दीपक पढ़ाई मे खूब मन लगा कर पढ़ता, रात को भी डिबिया जला कर पढ़ता रहता। और इसका परिणाम हुआ कि दीपक ने हाईस्कूल के साथ-साथ इन्टर भी विज्ञान संकाय से बहुत ही अच्छे अंकों से पास कर ली। अब हरिया को दीपक से आशाएँ दिखने लगी थी क्योंकि वह पढ़ने में बहुत अव्वल रहा था। और उसे पूरी उम्मीद एक अच्छे नौकरी मिलने की थी और अब सुलेखा भी शादी के लायक हो चुकी थी, इसलिए दीपक से आशाएँ जोड़ना लाजमी था। दीपक अब नौकरी के फार्म भी भरने लगा। बारहवीं करने के साथ-साथ कम्प्युटर की भी शिक्षा ली थी नौकरी करने के लिए।
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एक दिन उसके पास नौकरी के लिए लिखित परीक्षा के लिए बुलावा आया। दीपक परीक्षा दे आया। सन्योग से इस बार भी वह परीक्षा परिणाम में वह अव्वल रहा। अब नौकरी मिलनी पक्की थी। अब एक छोटे से साक्षात्कार की औपचारिकता शेष रह गयी थी। साक्षात्कार के दिन भी आ गए। खुशी-खुशी दीपक साक्षात्कार के लिए तैयार हुआ और अपने सभी योग्यताओं के प्रमाण-पत्र सहित बताये हुए पते पर पहुँचा। काफी भीड़ थी वहाँ, सभी लोग अपना-अपना समूह बनाकर आपस में बात कर रहे थे। दीपक ने जब उनकी बातों पे गौर किया तो महसूस हुआ कि सभी अंग्रेजी में ही बात कर रहे थे।
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अब दीपक अपना मूल्यांकन करने लगा – क्या वह अंग्रेजी बोल सकता है? अगर उसका साक्षात्कार अंग्रेजी में हुआ तो क्या होगा? यह सोचते हुए दीपक का दिमाग सुन्न पड़ने लगा, हाथ-पाँव फूलने लगे, पैरो तले जमीन खिसक गयी, यह सोचते हुए कि उससे ज्यादा उसके परिवार को इस नौकरी की कितनी जरूरत है? कितनी आशाएँ लगा रखी है सबने.. आते समय अपनी माँ के आँखों मे खुशी के आँसू देखे थे। क्या होगा इन सबका…?
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अंग्रेजी तो उसने भी पढी है, परीक्षाएँ भी पास की है पर.. बोलना.. ये कैसी जरूरत है नौकरी के लिए…? क्या हिन्दुस्तान में हिन्दी बोलने वाले को नौकरी नही मिलती? जानते तो है अंग्रेजी पर.. भला गाँवों में बोलने का अभ्यास कैसे किया जाए, किसके साथ किया जाए? क्या गाँव के गरीबों को अंग्रेजी की वजह से नौकरी नहीं मिलेगी? क्या कम्पनियों में काम सिर्फ अंग्रेजी बोलने वाले ही कर सकते है?
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यही सब सोच ही रहा था कि साक्षात्कार के लिए उसका नाम पुकारा गया और साक्षात्कार में भी वही हुआ जिसका डर था, काबिलियत गई किसी कूड़ेदान में और अंग्रेजी ने अपना जोड़ का तमाचा उसके गाल पर जड़ दिया। दीपक अपना लाल सा चेहरा लेकर घर की तरफ हो चला, अब वह सिर्फ इतना ही सोच रहा था कि घर जाकर क्या कहेगा? सबके उम्मीदों पर अब वह कौन सा उम्मीद जगायेगा..?
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