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अंग्रेजों ने भारत में आकर अंग्रेजी का एक ऐसा बीज बो दिया जो पौधा बनकर आज बहुत बड़ा हो गया है, इसकी हरियाली चारो तरफ इतनी दिखाई देने लगी है और इसका सुगंध इतना फैल गया है कि देश की अपनी मातृ और क्षेत्रीय भाषा कहीं किसी कोने में अपने खोते अस्तित्व को लेकर चिंतित और सुबकती दिख रही है। ऐसा नही है कि आज के युवा ही इसके मुख्य घटक है, गाँधी और नेहरू भी अंग्रेजी बोलकर अंग्रेजों और देश की जनता से ख्याति और सम्मान पाया करते थे। और नेहरू तो अंग्रेजी का उपयोग अपने परिवार वालों के साथ भी बोलचाल मे, लिखने-पढ़ने में करते थे। नेहरू इस वजह से काफी बुद्धिमान और पढ़े-लिखे समझे जाते थे। अब जब नेहरू अंग्रेजी से सम्मान प्राप्त कर सकते है तो नेहरू के जानने वाले ये कोशिश क्यों न करे। और आज तो सम्मान के साथ-साथ रोजी-रोजगारों मे भी अंग्रेजी को ही प्रमुखता दी जाती है।
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इस देश का बहुत बड़ा तबका गाँवों मे बसता है, जहाँ गाँवों की अपनी एक क्षेत्रीय भाषा के साथ-साथ हिन्दी भी बोलचाल की भाषा में इस्तेमाल होता है। लेकिन वहाँ भी जो अंग्रेजी बोल सकते है उन्हीं को ज्यादा पढ़ा-लिखा समझा जाता है। ऐसे दौर मे हिन्दी को फिर से सम्मानजनक स्थिति में पहुँचाना एक टेढ़ी खीर से कम नहीं। आज समाज में वही आदमी सम्मान पाता है जो अपने परिवार के सभी तरह की जरूरतों को आसानी से हँसते हुए पूरा करता है। यही बात आज हिन्दी के साथ है, आज अंग्रेजी जरूरतों को पूरा करता हुआ दिखाई पड़ रहा है, हिन्दी नही। लाचार, बेवस हिन्दी पर अब किसी का विश्वास नही रहा। वो तो स्वामी विवेकानन्द और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे इंसान हुये है जो विदेशों में भी हिन्दी बोलकर हिन्दी का सम्मान बढ़ाया करते थे, आजकल तो लोग अपने सम्मान पाने की खातिर अंग्रेजी बोलते है।
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हिन्दी को फिर से इस समाज और देश मे सम्मान दिलाने के लिए सबसे पहले सरकार को ही मुहिम चलानी होगी। जो अंग्रेजी नही जानते उनकी तनख्वाह, हर क्षेत्र मे नौकरी पाने वाले यहाँ तक की स्कूलों मे भी, बहुत कम होती है। लोगो की दृष्टि भी हिन्दी बोलने वालों के प्रति अलग होती है। इसकी वजह से जो अंग्रेजी नही जानते है वो किसी महफिल या किसी सभा में भी खड़े होकर बोलने में हिचकते रहते है। आजकल तो हिन्दी और संगीत की सभाओं में भी लोग अंग्रेजी में ही सम्बोधित करने लगे है। इन सभी बातों से लोगो की सोच हिन्दी के प्रति नकारात्मक हो चुकी है। देश में फैले बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जहाँ हिन्दी को पानी भरना भी नसीब नही होता। सरकार को चाहिए कि नौकरी के हर क्षेत्र मे हिन्दी की भी उतनी ही मांग बढ़ाये जितनी की आज अंग्रेजी की है।
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भारत में जितनी भी शिक्षाएँ दी जाती है चाहे वो तकनीकी शिक्षा हो या कम्प्युटर, अभियांत्रिकी हो या किसी उच्च स्तर की अधिकारिक शिक्षा, सभी के पाठ्यक्रम चीन और जापान की तरह भारत में भी अपनी भारतीय भाषा हिन्दी में हो। ऐसा करने से लोगो का मन, जो अंग्रेजी के प्रति सम्मान और हिन्दी के प्रति हीन भावना से ग्रसित हो चुका है, इसमे बदलाव आयेगा। हिन्दी जानने वाले लोग भी रोजगार पा सकेंगे। फिर हिन्दी सम्मान पाने के रास्ते पर अग्रसर हो जायेगा। अकेला चना भाड़ नही फोड़ सकता, इसके लिए इस देश में जितने भी नामी-गिरामी हस्तियाँ है जिनके बोलचाल और रहने-सहने के तरीको को लाखों-करोडों देशवासी अनुकरण करते है, उन्हें भी हिन्दी का सम्मान वापस दिलाने के लिए जोश के साथ आगे आना होगा। उन्हें भी अपने मंच या टेलीविजन के साक्षात्कार मे बोलने के लिए अपनी मातृभाषा का उपयोग कर लोगों को हिन्दी बोलने के लिए प्रेरित करना चाहिए। कम्पनियों को भी अपने उत्पादों का नाम व उसके प्रचार-प्रसार के लिए अधिक-से-अधिक हिन्दी का ही इस्तेमाल करना चाहिए।
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ऐसा नही कि हिन्दी इस्तेमाल करने वाले लोग बुद्धिमान या तकनीकी रूप से अक्लमन्द नही होते। सरकार को ऐसा कोई कानून भी बनाना चाहिए जिससे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों मे हिन्दीभाषियों के लिए सीट आरक्षित हो। कम्पनियाँ किसी व्यक्ति को उसे हिन्दीभाषी होने की वजह से अयोग्य घोषित न करे। चारों तरफ हमें हिन्दी का माहौल तैयार करना होगा। इसके लिए हिन्दी के विभिन्न तरह की प्रतियोगिताएँ आयोजित करनी होंगी जिसमे विजेताओं को आकर्षक पुरस्कार भी प्रदान करने होंगे। इस काम के लिए देश में चल रहे अनगिनत गैर सरकारी संगठनों को भी अपनी सक्रिय भूमिका निभानी होगी।
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