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वो कौन है ..?

BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
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मन की विरह है,
मन की कुछ है वेदना।
झकझोरती रहती है,
करती है आन्दोलित,
बतलाउँ किसे, समझाउँ किसे,
मन में जो है संवेदना ।
कुछ चाह रह गई है,
मन में कुछ आस रह गई है,
उलझकर मन के पन्नों में,
हर ख्वाहिशें मेरी,
इस संसारी विषयों में ।
हमने यहाँ कुछ चाहा था,
ठाना था कुछ करने की,
जवानी थी हिलोरें लेती,
हर तूफाँ से टकराने की,
हर घाव में प्रमाद करने की ।
मंज़िल पे थी बस नज़र,
और जा रहे थे इस क़दर,
जैसे बादलों पे हो सफर,
अब बारी थी फिसलने की,
इसका न कोई इल्म था,
अपने ही रखेंगे मुझे,
गफ़लत में, न कोई जिक्र था ।
समन्दर ने भी दिया धोखा,
न वो भी मुझे डुबा सका,
अब अपनों में ही उलझे रहे,
मन की हर एक चाह अब,
मन की गहराईयों में,
दफ़न अब होते रहे ।
समझता है कौन अब,
मन की इस मेरी बला को,
जिसके लिए न कर सका कुछ,
बेकार में भटकते रहे,
कहानियाँ लिखते रहे,
आरजू पे आरजू गढ़कर,
खुद ही प्रफुल्लित होते रहे ।
अब कौन है जो मेरे इस,
सपनों को उड़ान दे सकेगा,
फिर से मेरे इस पंख में,
एक नई जान भर सकेगा ।

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