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रफी, किशोर और मुकेश की अंतिम कड़ी मन्ना डे अपने शास्त्रीय गीत-संगीत से इंसान को इंसान से भाईचारे का पैगाम देकर अपने साँसों से साँसो की लड़ी को कल तोड़ दिया। साँसों की इस लड़ी के टूटते ही भारतीय फिल्म इतिहास से वो मखमली आवाजों का सूरज भी डूब गया, जिनके गाने सुनने के घंटो बाद भी कानों में इस तरह गुंजती रहती थी और आगे भी गुंजती रहेगी, जैसे वो अब भी गा रहे हो। मन्ना डे के जाने से भारतीय फिल्म और उनके चाहने वालो के लिए जो क्षति हुई है उसकी भरपाई करना असम्भव सा लगता है।
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अपने दौर के सबसे गुणी और शास्त्रीय संगीत में महारत हासिल मन्ना डे अपनी जिन्दगी के साथ-साथ पार्श्वगायकी में भी संगीत के नियमों के सिद्धांतों के साथ कभी समझौता नही किया, इसका बेजोड़ उदाहरण आपको फिल्म ‘पड़ोसन’ के एक गीत ‘एक चतुर नार …’ में किशोर दा के साथ गाये गीत में साफ-साफ झलकता है, जब किशोर दा अपने चरित्र और फिल्म के मांग के हिसाब से सरगम की जगह कुछ और बोल बोलने को राजी होकर बोलते है, जबकि मन्ना डे ने सिर्फ सरगम को ही जगह दिया किसी और बोल को नहीं।
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संगीत के सागर इस पार्श्वगायक ने अपने दौर के लगभग हर संगीतकारों के साथ काम किया और लगभग हर अभिनेता के लिए आवाज दी। लगभग सभी भाषाओं के गीतों को अपनी आवाज देकर मन्ना डे ने बहुत सारी ख्याति और उपलब्धियाँ अर्जित की। सबसे बड़ी खास बात यह थी कि वो हर तरह के गानों को गा सकते थे, और जिन गीतों को उन्होनें आवाज दी उसे गाना किसी और गायकों के लिए असम्भव सा था और आज भी है। आज भी नए गायकों को शास्त्रीय संगीत की कला सिखाने में उनके गुरु भी मन्ना डे के गानों को ही सुनने और सीखने की सलाह देते है और गवाते है। मन्ना डे एक बहुत अच्छे संगीतकार भी थे। लेकिन उन्होने फैसला सिर्फ अपने पार्श्वगायन के पक्ष में ही रखा।
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कभी न मरने वाले इस मन्ना डे की आवाज को सूरज कहें या चन्दा, हमेशा सूरज और चाँद की तरह कभी हंसाने वाले तो कभी रूलाने वाले के बीच गुनगुनाया जाता रहेगा और हर नए गायकों को यह कहता रहेगा कि ‘ये भाई जरा मुझे सुन के चलो…’ । कोई अपने जिन्दगी की रैन भले ही कैसे बिता ले लेकिन अगर इस आवाज के साथ वो बिताये तो उसकी रात भी भींगी-भींगी गुजरेगी और सुहानी भोर भी आयेगी अन्धियारा जाने के बाद।
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1 मई 1919 को जन्में ‘प्रबोध चन्द डे’ से ‘मन्ना डे’ ने लगभग सभी भाषाओं में साढ़े तीन हजार से भी ज्यादा गाने गाये। 94 वर्ष के इस पार्श्वगायक को पद्मश्री, पद्मभूषण, और दादा साहब फाल्के जैसे पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। गायकी के हर उँचाई को छूने वाले इस प्यारे ने प्यारे से वतन से बिछुड़ कर भी अपने आवाजों जो कुर्बानी दी है वह इस वतन के लिए अनमोल और अविस्मरणीय है। अपने जोहरां जबीं को हसीं और खुद को जवान बताने वाले इस गायक की आवाज हमेशा जवान रहेगी और उस हर कान से गुजरने वाले आवाज को ये वतन सलाम करता रहेगा।
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