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दीवाली ही दीवाली

BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
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आजकल चारो तरफ शोर है दीवाली की, घर हो या बाहर, सड़क हो या बाजार, बच्चें हो या बूढ़े हर एक जुबां पे दीवाली ही दीवाली है। बाजार के हर एक दुकानों पर भीड़ है, दीवाली के लिए कुछ विशेष दुकानें भी खोली गयी है उन पर भी भीड़ है। बाजार में चारों तरफ खरीददारी की रौनक है। कोई खरीद कर दीवाली मना रहा है तो कोई बेचकर। आज कोई महंगाई का ढ़ोल क्यों नही पीटता, जबकि दुकानदार अपनी दीवाली मनाने के लिए सामानों के दाम भी खूब बढ़ा-चढ़ाकर माँग रहे है। आज महंगाई भी किसी कोने में छुप कर बैठ गया सा लगता है। ये दीवाली का असर है या कुछ और।
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दीवाली के कारण की बात करें तो हम सब ने पढ़ा और सुना होगा कि रावण पर विजय प्राप्त कर राम के स्वदेश लौटेने की खुशी में देशवासियों ने दीप जलाकर उनका स्वागत किया था। तभी से यह दीप जलाने का रस्म आज दीवाली पर्व के रूप में तब्दील हो गया। इस दिन के लिए लोग ऐसा भी मानते है कि अन्धेरे पर रोशनी की विजय का यह पर्व है। मिठाईयाँ बाँटकर खुशियाँ इजहार करने का यह पर्व है।
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दीवाली मनाने के तथ्य में जितनी सुन्दर बातें छिपी हुई है वो बहुत ही मनोरम और सार्थक है। लेकिन आज जिस प्रारूप और सोच में दीवाली मनायी जाती है वो कहाँ तक इसके तथ्य पर खड़ी उतरती है ये कहना बहुत ही मुश्किल है। आज दीवाली उनकी ही होती है जिनके पास फिजूल खर्च करने के लिए धन हो। आज लोगों को मिट्टी के दीये की दीवाली और उसकी शुद्धता को छोड़ बिजली की चकाचौंध और रंग-बिरंगे लाईटों से दीवाली मनाने में ज्यादा खुशी मिलती है। दीवाली से कई दिन पहले से ही, सम्भावित जानलेवा दुर्घटनाओं को ताक पर रखकर आतिशबाजी चलाने में जो खुशियाँ आज बच्चे महसूस करते है वो मिठाई के रूप में अपने भाई-बहनों और मित्रों को खुशियाँ बाँटने में नही मिलती। खुशियों की मात्रा महिलाओं और बच्चों में, उनके द्वारा किसी भी रूप में खर्च किए गये धन से भी है। महिलाएँ मायूस इसलिए हो जाती है, कि उनके पड़ोसी उनसे ज्यादा सामान खरीद लाये और उनके यहाँ मिठाईयाँ भी ज्यादा आई है। बच्चे इसलिए रोते है कि उनके मित्रों ने उनसे ज्यादा पटाखे जलाये। आज बाजारों में इस तरह की खुशियाँ खरीदते हुए महिलाओं और बच्चों की संख्या ही शत-प्रतिशत में है। इन सब को देखते हुए ऐसा लगता है, कि लोगो की राह प्रेम और भाईचारे का सन्देश देती दीवाली, से भटककर किसी खरीदने और बेचने वाले ग्लैमरस खुशियों की तरफ हो गई है। और इसका असर समाज में आए दिन दिखता भी रहता है। समझ में ये नही आता कि भारत जैसे देश में, जहाँ इतने ईश्वर, मन्दिर, धर्म और पर्व-त्योहारों के होते हुए भी आपसी प्रेम-मोहब्बत कहीं दूर जाता हुआ क्यों जान पड़ता है?
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कमजोर होते हुए भी अपनी बाधाओं से लड़ने का सन्देश देने वाले दीप अब क्यों नही जलते? घी के दीये से होने वाली शुद्धता अब कहाँ खो गयी है? प्रेम, भाईचारे और एकता का सन्देश देने वाले ये पर्व अब क्यों बदले-बदले से नज़र आते है? हर पर्व अब अपने तथ्यों को छोड़ सिर्फ एक रस्म की तरह ही क्यों निभाए जा रहे है? आज के पर्व-त्योहारों में भी ग्लैमर का समावेश क्यों होता जा रहा है? ये पढ़ते और जानते हुए भी कि पटाखों से कई तरह की प्रदूषण होती है और दुर्घटनाएँ भी, क्यों बिना पटाखे जलाये खुशी नही मिलती?
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इसी तरह के सवालों का दौर शायद आपके मन में भी चल रहा होगा। लेकिन सवाल फिर ये उठता है कि क्या इसका कोई हल है..?

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