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समझे अपनी-अपनी भूमिका

BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
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“बुढ़ापे में लड़कियाँ ही सेवा करती है” अक्सर ऐसे वक्तव्य सुनने को मिल जाते है। लिहाजा समाज में लड़कियों और महिलाओं की स्थिति स्वार्थी भाव से ही सही सम्मानजनक होनी चाहिए थी। मगर हालात कुछ और ही कह रहे है। उदाहरणस्वरूप इस स्थिति को परिवार में एक लड़की के पैदा होने पर परिजनों के चेहरे पर मलिनता के रूप में देखी जा सकती है, कभी-कभी तो लड़कियों को पैदा होने ही नही दिया जाता। भ्रूणहत्या भी धड़ल्ले से की जाती है और इस हत्या में परिवार के महिलाओं का ही हाथ सबसे अधिक होता है। वंश चलाने के लिए उन्हें लड़का चाहिए। यहाँ पर फिर वो कहावत सही साबित होती है कि एक महिला ही दूसरे महिला की सबसे बड़ी दुश्मन होती है।
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आज महिलाओं का घर से बाहर निकलना अर्थात अपने पैरों पर खड़ा होने की सोच, समाज में महिलाओं की बदलती स्थिति को देखकर आई है, और इसके जिम्मेदार पश्चिमी देशों से नारी और पुरूष के समान होने की अवधारणा आने से आज भारत के महिलाओ का स्वरूप बदलता जा रहा है, बदलता क्या, बिगड़ता जा रहा है। सरकार की नीति भी राजनीतिक वोट बैंक से परे कुछ भी नही सोचती। वह भी अब “नर-नारी एक समान” के नारे को बुलन्द कर नारियों को घर से बाहर लाने के लिए मजबूर कर दिया है। अब घर और परिवार की स्थिति बिगड़ती जा रही है। अगर एक परिवार बिगड़ता है तो असर समाज और पूरे देश पर पड़ता है। लेकिन ऐसा सोचता कौन है? सब अपने-अपने रोजगार में लिप्त है, घर के स्त्री-पुरूष बाहर जाते है, और बच्चे बेचारे क्या करे, जो जी में आता है करने लगते है, उन्हे सही-गलत बताने वाला कोई नही होता। बच्चे के अन्दर पारिवारिकता कैसे आएगी? आने वाले समय में वह अपना परिवार कैसे चलाएगा? ऐसी स्थिति में तलाक और परिवार के झंझट तो आम हो ही जाऐंगे, और हो ही रहे है। कोई अपने घर की बेटी, शादी के बाद दूसरे घर की बेटी तो दूर, बहू तक नही बन पा रही है। रिश्ते भी अब बाजारवाद में सम्मिलित होते जा रहे है।
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कुछ शिक्षित महिलाएँ संगठित होकर अपना हक़ मांगने लगी है, प्रदर्शन करने लगी है, परिवार और समाज बनाने जैसे कर्तव्यों से मुँह मोड़ लिया है, परिणामस्वरूप आज समाज विकृत होने लगा है। समाज की मानसिकता बदलने लगी है, जिसका घाव आज महिलाओं को ही सहना पड़ रहा है। चारों तरफ महिलाओं के प्रति अत्याचार और बलात्कार जैसे कुकृत्य और घृणित कार्य अब आम होने लगे है। कानून चाहे कितना भी सख्त क्यों न हो जाए, सजा चाहे कितना भी निर्मम क्यों न बना दिया जाए, जब तक सभी परिवार और परिवार के बच्चों की मानसिकता न बदलेगी, समाज किसी कीमत पर नही बदल सकता। वो अपने घर की ही बिगड़ती मानसिकता होती है जो बाहर जाकर लोग घृणित कार्यों को अंजाम देते है।
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तत्कालीन और सुर्खियों में रही आरूषि-हेमराज हत्याकांड में हत्या के दोषी अपने ही माँ-बाप को ठहराया गया है। और व्यक्तिगत रूप से मैं भी उसी माँ-बाप को ही दोषी और इस हत्या का जिम्मेदार मानता हूँ। माँ को सबसे अधिक दोषी, क्योंकि ये माँ का ही कर्तव्य होता है अपने बच्चो की देखभाल करना, उनके जरूरतों को समझना, उसके द्वारा किए गये कार्यों के सही और गलत का आभास कराना, प्यार और ममता से सुसंस्कृत करना। लेकिन अगर घर में माँ ही न मिले तो बच्चा कहाँ जाएगा? किसको अपनी बात कहेगा? कैसे जानेगा कि वो गलत कर रहा है या सही? अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को दूसरे आया व नौकर पर थोपकर माँ-बाप आगे निकलना चाहते है, समाज में अपनी छवि बनाना चाहते है, अपनी अहमियत दिखाना चाहते है। बाद में जब माँ-बाप को अपने बच्चे द्वारा किए गए गलत कार्यों के बारे में पता चलता है तो समाज में अपने छवि के धूमिल हो जाने के भय से मन में क्रोध के अलावा और कुछ नही आता, फिर उस क्रोध के सामने कोई रिश्ता, ममता, कानून या सजा कुछ भी दिखाई नहीं देता। मेरे आस-पास भी बहुतों ऐसी घटनाएँ है जिनसे उनके परिवार और उनके बच्चे बिगड़ते रहे है।
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समाज के इस बदलते परिवेश का सिद्धांत सिर्फ “पढ़ो, लिखो, ज्यादा-से-ज्यादा कमाओ, चाहे कैसे भी, अपना घर हो, बंगला हो, गाड़ी हो (पड़ोसी या किसी अमीरजादे से हम किसी तरह कम न रह जाये) सारी सुख-सुविधाएँ खरीदो और जीओ” रह गया है। जीने के इस सिद्धांत में, कही भी न तो कोई रिश्ता है न ही रिश्तों के एहसास, न परिवार न परिवार की जरूरत, न समाज न समाज के कायदे। आज की खुशियाँ जीने के लिए उपलब्ध भौतिक साधनों में छिपी है। एक साधन मिलते ही खुशियाँ बाजार के दूसरे साधनों पर परिन्दे की तरह उड़ कर चली जाती है। अर्थात खुशियाँ आज घर में नहीं अपितु बाजार में मिलने लगी है। और बाजारू संस्कार घर में आ रहे है।
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अगर भारत पश्चिमी देशों से आयातित, पुरूष और स्त्री के समान होने की अवधारणा को आत्मसात करने की कोशिश कर रहा है तो उसे इसके दूसरे पहलू को भी आत्मसात कर लेना होगा कि किसी स्त्री को पर पुरूष के साथ या किसी पुरूष को पर स्त्री के साथ रिश्ता या सम्बन्ध बना लेना कोई अनुचित कदम नही है। परिवार दो भिन्न लोग स्त्री और पुरूष के युग्मों से बनती और चलती है, लेकिन आज समाज प्रकृति के बनाए इस बेमिसाल भिन्नता को एकता में प्रदर्शित कर प्रकृति का विरोध करना चाहता है।
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इसमें कोई अनुचित नही कि स्त्री-पुरूष साथ मिलकर काम करे, काम में हाथ बँटाये। कभी-कभी मजबूरी होती है, कभी जरूरी होती है, कि घर-परिवार चलाने के लिए सबको मिल कर काम करना पड़ता है। लेकिन यह बात तब अनुचित माना जायेगा जब आपका बच्चा भूखा-प्यासा सो जाता है, रोटी का भूखा नही, आपके प्यार का, ममता भरे स्पर्श का। जब उसके दिमाग में कोई बात आती है, किसी उलझन में फँस जाता है और वह महसूस करता है कि अब किससे पूछे? घर में कोई नहीं है। यही पर यह बच्चा गलत कदम उठा सकता है, गलत समझ सकता है। क्योंकि उसे सही राह दिखाने वाला कोई नहीं। स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई तो सही नौकरी भी नहीं दे पाता है। पारिवारिक और सामाजिक कैसे बनायेगा। आप शाम थक कर आते है खा कर सो जाते है, सुबह से फिर वही भागा दौड़ी। धीरे-धीरे आप अपने बच्चों से दूर होते चले जाते है। आपका बच्चा गलत राह पकड़ लेता है, उसके बाद आप कुछ नही कर सकते, यही पर आपके (स्त्रियों) बाहर जाकर काम करने की सोच अनुचित और अमानवीय हो जाती है।
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वक़्त और परिस्थितियों से समझौता कर आसानी से जीया जा सकता है, परंतु एक बार गुजरे वक़्त को वापस लाकर सही नहीं किया जा सकता। आज समाज विकृत हो चला है, अमानवीय हो गया है, बच्चों की सोच भी बदली-बदली लगने लगी है, अगर युँ ही सब कुछ चलता रहा तो आने वाले दिनों में समाज का जो चेहरा सामने आएगा, वह बड़ा ही भयावह होगा, ये तो अभी शुरुआत है। समाज और विकृत न हो इसके लिए हम सब को मिल कर इस पर कार्य करना होगा। इसमें वक़्त बहुत लगेगा, क्योंकि आप जानते है कि बच्चे को बिगाड़ना बहुत ही आसान है लेकिन उसे सही राह पर लाना बहुत ही मुश्किल, कभी-कभी तो नामुमकिन भी हो जाता है। हमें अपने बच्चों पर नजर रखनी होंगी, उसका ख्याल रखना होगा, प्यार से समझाना होना, उस पर समय देना होगा। प्यार की ताकत सब को बदल सकती है। और प्यार की कमी किसी को राक्षस बना सकता है।
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कुछ भी हो समाज के बदल रहे इस परिवेश में हम सब खुद जिम्मेवार है, हम सब को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। अंत भी तो शुरूआत के बाद ही होगी, इसलिए हम सब को मिलकर इसकी शुरुआत करनी होगी। सुन्दर समाज बनाना होगा, सुन्दर फूल खिलाने होंगे।

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