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आज भी भारत विश्वगुरू है, मैं तो ऐसा ही सोच रहा था। लेकिन यहाँ तत्कालीन परिस्थिति कुछ और ही कह रही है। अपनी ही समस्याओं से निजात पाने के लिए अपनी परिस्थिति को देखे बगैर अन्य देशों द्वारा लिए गये फैसले को खंगाल रहा भारत विश्वगुरू तो नहीं हो सकता। हर क्षेत्र मे मिसाल कायम करने वाला भारत क्या आज बुद्धिजीवी लोगो से खाली हो गया है? उच्चस्थ पदों पर आसीन न्यायमूर्ति को भी क्या भारत के सामाजिक फैसले लेने के लिए अन्य देशों की तरफ झाँकना पड़ रहा है? क्या इन्हें अपनी बुद्धिमता पर भरोसा नही रहा? शायद इसी का परिणाम है कि लाखों विवादित मामले न्यायालयों के अलमारियों की शोभा बढ़ा रहे है।
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महिलाओं को समाज में बराबरी का हक़ दिलाने का मामला हो, लिव-इन-रिलेशनशिप का विषय हो या अब 18 साल से कम के दरिन्दो को सजा देने का मामला हो। इसमे कोर्ट भी अन्य देशों द्वारा लिये गये फैसले का हवाला दे रहे है। क्या न्यायमूर्ति ये देखना उचित नही समझते कि भारत की सामाजिक परिस्थितियाँ अन्य देशो से बिल्कुल भिन्न है। यहाँ उन फैसलों को अनुचित ठहराया जा सकता है जो पश्चिमी देशों में खुलेआम सड़कों पर हुआ करते है। और धीरे-धीरे यहाँ माहौल भी तो बिल्कुल वैसा ही होता जा रहा है। जो इस समाज की खूबसूरती में दीमक की तरह है। यहाँ फैसले अलग भी हो सकते है इस पर पुनर्विचार किया जाना अति आवश्यक है।
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अगर महिलाओ को बराबरी का हक़ दिलाये जाने के कानून के समबन्ध में बात की जाए तो इसका असर ये है कि महिलाओ ने अपराध के क्षेत्र में भी बराबरी कर ली है, किसी भी जेल में महिलाओ की संख्या भी पुरूष से कमतर नहीं। महिलाये भी आज बाजार में खड़े होकर सिगरेट और शराब पीते बराबरी की होड़ में शामिल है। भ्रष्टाचार और अपराध के क्षेत्र में भी महिलायें बराबरी कर रही है। कम से कम भारतीय समाज इसे पचा पाएगी, ये कहना बहुत मुश्किल है। जिसके दुष्कर परिणाम इस समाज में दूसरे महिलाओ को भी भुगतने पड़ते है। अगर आप चन्द उन महिलाओं को गिनाकर, जिन्होनें इस देश का नाम रोशन किया है, उनके नाम की आड़ में सभी महिलाओ को आगे कर आग में झोंकना चाहते है तो ये काबिलियत नहीं है। ये बुद्धिजीवियों की दूरदर्शिता नहीं है। जिसके अन्दर प्रतिभा है किसी भी क्षेत्र में, उन्हे आप किसी भी कीमत पर नहीं रोक सकते, चाहे वो स्त्री हो या पुरूष। प्रतिभा छुपाई नहीं जा सकती, जरूरत है उसके अन्दर के प्रतिभा को जानकर उसके हौसले को बढ़ाने की। न कि किसी की प्रतिभा को देखकर उसके पीछे भागने की और भगाने की। प्रतिभा के मामले में लिंगभेद करना बहुत बड़ी बेवकूफी है। स्त्री और पुरूष के बराबर होने का नारा जितना बुलन्द होता जा रहा है उसी मात्रा में ये दोनो लिंग समाज में अलग-थलग पड़ते दिखाई दे रहे है। दोनो आमने-सामने खड़े से हो गये है, एक-दूसरे के प्रतिद्वन्दी हो गये है। परिवार में भी ये प्रतिद्वन्दी है। ऐसी स्थिति में परिवार का सुचारू रूप से चलना कितना मुश्किल है आप सब समझ सकते है। परिवार और समाज, सहयोगियों से चलता है प्रतिद्वन्दी से नहीं, इससे सिर्फ वैमनष्य और ईर्ष्या ही फैलता है जिसके आत्मघाती परिणाम सामने आते है।
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लिव-इन-रिलेशनशिप के सम्बन्ध में भी वही बात है, कानून और नेतागण भी पश्चिमी देशो से सीख लेकर भारत को भी ये रोग लगाना चाहते है। भारत में वैसे तो कहने तो बहुत सारे धर्म है, जो प्रेम की दुहाई देते फिरते है, लेकिन प्रेम होता कोई देखना नही चाहता। चाहे प्रेमियों को अपना बलिदान क्यों न देना पड़े। फिर लिव-इन-रिलेशनशिप ये समाज कैसे बर्दाश्त करेगा, मालूम नहीं।
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यहाँ का कानून भी विचित्र है, और यहाँ के लोग भी। इसका फायदा अपराधी किस्म के लोग खूब उठाते है। जिसने भी अपराध किया उसे सजा मिलनी ही चाहिए, उम्र या लिंग कोई भी हो, लेकिन कानून उसकी उम्र क्यों देखता है? अगर एक दिन भी कम निकला तो उसे कानूनन सजा नहीं मिल पायेगी। कैसा कानून है यह। अब देखिये जहाँ बाल विकास मंत्रालय फौजदारी केस करने के सम्बन्ध में बात करती है वही राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग उसका विरोध करती है। क्या इस आयोग से सम्बन्धित लोग निरक्षर है। जिसने दरिन्दगी जैसा अपराध किया हो उसके पक्ष में तो उसके माँ को भी खड़ा नहीं होना चाहिए। ये आयोग वाले उसके समर्थक क्यों बने फिरते है। वह अपराधी सिर्फ सजा का अधिकारी है बस और कुछ नहीं। इसमें कोई पेंच नही होना चाहिए। लेकिन ये भारत है, आतंकवादी, भ्रष्टाचारी, बलात्कारी और अपराधी के भी यहाँ समर्थक है, फिर कोई क्यों न बनें आतंकवादी, भ्रष्टाचारी और बलात्कारी।
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