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समलैंगिकता की आजादी : मर्यादित या अमर्यादित

BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
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सेक्स जैसे प्राकृतिक विषय पर अलग-अलग वर्गों के बुद्धिजीवियों के मत हमेशा से भिन्न रहे है। जैसे कि सेक्स के लिए लड़के व लड़कियों की कम-से-कम उम्र कितनी होनी चाहिए। ये उम्र भी विवाद का विषय रहा है घर-परिवार से समाज तक, संसद से सुप्रीम कोर्ट तक, संसोधन पे संसोधन होते रहे है, हर संसोधन के बाद विवाद गरमाया है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का आदेश भगवान के आदेश की तरह मान कर लोग चुप हो जाते है। सुप्रीम कोर्ट और संसद मिलकर इस देश की तकदीर लिखते है, अपनी मर्जी से कभी इस उम्र को कम, तो कभी ज्यादा कर देते है। ये विवाद तो तब होता है जबकि भिन्नलिंगों के बीच सेक्स जायज और सबमान्य प्राकृतिक है। लेकिन जब समलैंगिक सम्बन्ध की बात सामने आती है तो इसमें भी लोगो के अलग-अलग मत जाहिर होते है, संबंध रखने में तो छोड़िये, इसके प्राकृतिक और अप्राकृतिक होने या न होने में ही विवाद है। लिहाजा इसके हर फैसले के बाद खुशी-नाखुशी, सहमति-असहमति, विरोधी-अविरोधी, रैलियाँ व टिप्पणियाँ तो स्वभाविक ही है। आजकल ये भी देखने में आने लगा है कि सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों में पश्चिमी देशों के फैसलों से अनुकरण करने में भी पीछे नही हटी है।
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ये माना जा सकता है कि समाज की परम्परायें व संस्कृति में वक़्त के हिसाब से बदलाव आता रहा है। लेकिन देखने में अब ये आ रहा है कि पछुआ हवा अपने देशों की संस्कृति अपने साथ लाकर भारतीय संस्कृति में मिलावट कर रही है। जिसका परिणाम लोगो की सोच पर हुआ है। लगभग 4 साल पहले जब दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला समलैंगिक संबंध के पक्ष में आया था तब भी इस पर विरोध हुआ था, अब जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले में उलटा फैसला आया, इसे अपराध करार दिया, तो लगभग सभी उच्च वर्ग के राजनेता, अभिनेता, व गणमान्य लोगों ने इस फैसले को निजी जिन्दगी में खलल डालने वाला बताया। कम से कम इन बातों से ये तो प्रतीत हो ही रहा है कि अब भारतीय समाज अपनी पुरानी परम्पराये, नैतिकता, लाज, शर्म व अपने मर्यादा की हद में घुटन महसूस कर रही है। हर कोई अब हर तरह से आजाद व स्वतंत्र होकर जीना चाहता है, चाहे इसके लिए कोई अपनी मर्यादा तोड़े या निर्लज्जता की सीमा तोड़े, कोई उसे कुछ भी न कहे।
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इसका मतलब लोगो की सोच इतनी बदल गई है कि किसी को अमानवीय व्यवहार या अमानवीय/अप्राकृतिक सेक्स/संबंध करने पर अगर रोका जायेगा तो इसे मानवाधिकारों का हनन समझा जायेगा। उल्टे रोकने वाले को ही सजा..? मजे की बात ये है कि ज्यादातर शिक्षित वर्ग ही इसके पक्ष में है, जबकि वैज्ञानिकों ने भी इस तरह के अप्राकृतिक संबंध को घातक रोग पैदा करने वाला बताया है, और कई बार इस तरह के मामले भी सामने आये है। तो क्या ये माना जाए कि जो भी राजनेता या अभिनेता समलैंगिक संबंध के पक्ष में बोल रहे है, इस पर रोक को असंवैधानिक और मानवाधिकारों का हनन मानते हुए निजी स्वतंत्रता पर पहरा लगा हुआ बता रहे है, हो सकता है ये लोग इसी संबंध मे लिप्त हो।
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इस विषय पर सवाल उठते रहेंगे कि जिन व्यवहारों को, जिन आचरणों को सामाजिक कुरीतियाँ घोषित करनी चाहिए, क्या उन्हें इस समाज में हक़ देना जायज है? अगर ऐसा हुआ तो धर्म, संस्कार, परम्पराओं और सुसंस्कृत होने का बखान करने वाले भारतीय अब क्या कहलायेंगे.? अपने भोग-विलास के लिए अब लोग अपनी लाज, मर्यादा, और संस्कार जैसी सीमा को तोड़ देना चाहते है, क्या लोग ऐसी स्वतंत्रता चाहते है?

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