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शर्तों की राजनीति

BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
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जब अरविन्द केजरीवाल अपनी मुश्किल सी शर्तों को दोनों मजे हुए राजनीतिक पार्टियों के सामने रखकर राजनीति का बुखार जाँचने के लिए थर्मामीटर लगाना चाहा, तो भारतीय जनता पार्टी सिर्फ आगामी लोकसभा चुनाव को देखकर एक नए उसूलों पर चलने का ढ़ोंग करती दिखाई दी, वहीं तत्कालीन दिल्ली सियासी राजनीति से बिल्कुल बाहर हो चुकी कांग्रेस को उन शर्तों में भी एक सकारात्मक सोच जैसी नीयत दिखाने का मौका मिला, जिसे भुनाते हुए आसानी से मुश्किल शर्तों को मानकर फिर से ये मुश्किल केजरीवाल के पाले में डाल दिया। अब सच कहिए तो सबसे ज्यादा मुश्किल में केजरीवाल है, और सबसे अच्छी स्थिति में काँग्रेस दिखाई दे रही है। अब केजरीवाल के पास सिर्फ काँग्रेस जैसी भ्रष्टाचार पार्टी के साथ काम नही करने का मुद्दा हो सकता है, लेकिन ऐसी स्थिति में भी काँग्रेस जनता के लाभकारी शर्तों के साथ होने का मुद्दा लेकर मजबूत खड़ा रहेगा। काँग्रेस शर्तों के साथ होकर अपनी राजनीति में एक ऐसा तीर चलाने की कोशिश की है जो आगामी चुनाव के लक्ष्यों को भेदने में कामयाब नही तो असर जरूर डालेगा। अब दिल्ली में आप की सरकार बनें या राष्ट्रपति शासन, इतना तो जरूर है कि काँग्रेस इन शर्तों के साथ अपने दोनो हाथ में लड्डू महसूस कर रही होगी।
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दूसरी तरफ काँग्रेस लोकपाल बिल पास करा कर खुद को जनता के सामने अपना नया चेहरा लाने की तैयारी कर रही है। लेकिन सवाल ये है कि अब अरविन्द केजरीवाल खुद को और खुद की आम आदमी पार्टी को कहाँ देख रहे है। क्या अरविन्द केजरीवाल सरकार बनाकर मुश्किल से शर्तों को व्यवहारिक बनाने की कोशिश करेगी या फिर से दिल्ली को दूसरे चुनाव की आग में झोंक देगी? इतना तो सच है कि अच्छा करने की सोचना और उसे हक़ीक़त के धरातल पर लाना दोनों में काफी फर्क होता है। जैसा कि हम सभी जानते है कि आम आदमी की आम आदमी पार्टी जो कुछ सोच रही है वो सच में एक जनता के हित का कार्य है, लेकिन उसे व्यवहार में लाये जाने तक पार्टी को बहुत कुछ खोना और पाना होगा। भले ही सभी पार्टियाँ ऐसे सोच को अव्यवहारिक मानती हो लेकिन कुछ भी मुश्किल नही है अगर कोई दिल से कुछ करने की तमन्ना करता हो। लिहाजा सभी पार्टियों को साथ देकर देश की स्थिति को सुधारने में मदद करनी चाहिए, लेकिन यहाँ राजनीति पर राजनीति करने की आदत है सभी को।

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